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मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि

मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि

अमेरिका में प्रोत्साहन की धीमी वापसी पर भारत, चीन एकमत

ब्रिक्स राष्ट्र प्रमुखों की सेंट पीटर्सबर्ग होने वाली बैठक से पहले गुरुवार को चीन ने विकासशील देशों को विशेष पैकेज की जरूरत को खारिज कर दिया, लेकिन भारत के साथ सहमति जताई कि अमेरिका को मौद्रिक प्रोत्साहन धीमी गति के साथ वापस करना चाहिए।

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चीन के इस रुख की जानकारी भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान की पृष्ठभूमि में दी गई, जिसमें सिंह ने अमेरिका से मौद्रिक प्रोत्साहन धीमी गति के साथ वापस लिए जाने की अपील की थी, क्योंकि इससे उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।

चीन के उप वित्त मंत्री झू गुआंग्याओ ने रूस के इस पश्चिमोत्तर शहर में संवाददाताओं से कहा, "अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सकारात्मक संकेत देखे जा रहे हैं। इसमें धीमे-धीमे तेजी वापस आ रही है और हम इसका स्वागत करते हैं।"

झू ने कहा, "लेकिन अमेरिका को निश्चित रूप से इसका दूसरे देशों पर पड़ने वाले असर के बारे में सोचना चाहिए।"

उन्होंने कहा कि ब्रिक्स देशों की बुनियाद मजबूत है। इसलिए संकट से उबरने के लिए उन्हें बाहरी मदद नहीं चाहिए। लेकिन आंतरिक मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि स्तर पर सुधार किए जाने की जरूरत है।

ब्रिक्स देशों में शामिल हैं-ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका।

उन्होंने कहा, "अभी ब्रिक्स देशों को विशेष मदद की जरूरत नहीं है, लेकिन आंतरिक संरचनागत सुधार जरूरी है।"

मनमोहन सिंह यहां गुरुवार और शुक्रवार को जी20 शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए पहुंचे हैं। सिंह ने कहा है कि विकसित देशों को ऐसी नीति पर नहीं चलनी चाहिए, जिसका नकारात्मक असर विकासशील देशों पर पड़े और सभी देशों को संयुक्त रूप से रोजगार सृजन और निवेश में वृद्धि पर जोर देना चाहिए।

शिखर सम्मेलन से पहले सिंह ने कहा, "सेंट पीट्सबर्ग में मैं विकसित देशों द्वारा पिछले कुछ सालों से अपनाई गई अपारंपरिक मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि नीति को धीमे-धीमे वापस लिए जाने पर जोड़ दूंगा, ताकि विकासशील देशों का विकास अवरुद्ध नहीं हो।"

उल्लेखनीय है कि 2008 के बाद से अमेरिकी फेडरल रिजर्व संकट से उबरने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन के रास्ते पर चल रहा है, जिसे अब वह चरणबद्ध तरीके से वापस लेना चाहता है।

प्रधानमंत्री सिंह यहां बुधवार को पहुंचे। उन्होंने ब्रिक्स नेताओं से मुलाकात के साथ अपनी गतिविधि शुरू की।

अधिकारियों के मुताबिक ब्रिक्स देश यहां 100 अरब डॉलर के उस कोष पर भी विचार कर सकते हैं, जिनकी स्थापना पर मार्च में डरबन में सहमति बनी थी और जिससे विकासशील देशों को वित्तीय संकट से निपटने में मदद करने की योजना है।

चीन को छोड़ कर कई विकासशील देशों की मुद्रा इस साल डॉलर के मुकाबले अवमूल्यन का शिकार हुई है। भारतीय मुद्रा रुपया में 20 फीसदी गिरावट आई है।

एक्सपीएफ (सीएफपी फ्रैंक)

सीएफपी मध्य प्रशांत फ्रैंक के लिए खड़ा है, जिसे प्रशांत महासागर क्षेत्र में इसके उपयोग के कारण “फ्रैंक पैसिफिक” के रूप में भी जाना जाता है। एक्सपीएफ के लिए मुद्रा प्रतीक एफ है और बिलों को 500, 1,000, 5,000 और 10,000 वेतन वृद्धि में दर्शाया गया है, जबकि सिक्कों को 1, 2, 5, 10, 20, 50 और 100 वेतन वृद्धि में लगाया गया है।

पेरिस स्थित संस्थान डी-एडमिशन डी’ट्रे-मेर, जिसका मुख्यालय पेरिस में है, एक्सपीएफ जारी करता है। प्रारंभ में, सीएफपी फ्रैंक में अमेरिकी डॉलर (यूएसडी) के साथ एक निश्चित विनिमय दर थी, जिसने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फ्रांसीसी प्रशांत क्षेत्रों की अर्थव्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 1949 में, सीएफपी फ्रैंक को फ्रेंच फ्रैंक (एफ) के साथ एक निश्चित विनिमय दर के लिए बदल दिया गया । वर्तमान में, सीएफपी फ्रैंक यूरो के लिए आंकी गई है, जिसमें 10,000 एफ, उच्चतम मूल्यवर्ग का सीएफपी नोट, 83.8 यूरो के बराबर है।

सीएफपी फ्रैंक एक 72 वर्षीय मुद्रा है, जो दो मुद्राओं में से एक है जिसे फ्रांस ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पेश किया था। युद्ध के बाद का मुद्दा फ्रांसीसी फ्रैंक की कमजोरी का मुकाबला करने के लिए था। इस समय जारी किया गया दूसरा पैसा पश्चिम अफ्रीकी सीएफए फ्रैंक है । सेंट्रल बैंक ऑफ वेस्ट अफ्रीकन स्टेट्स ऑफ डकार, सेनेगल में स्थित है, जो अब वेस्ट अफ्रीकन सीएफए फ्रैंक, साथ ही वेस्ट अफ्रीकन इकोनॉमिक एंड मॉनेटरी यूनियन को नियंत्रित करता है, जिसमें बेनिन, बुर्किना फासो, कोटे डी आइवर, गिनी-बिसाऊ, माली शामिल हैं। वर्तमान में नाइजर, सेनेगल और टोगो मुद्रा का उपयोग करते हैं।

सीएफपी फ्रैंक का इतिहास और पृष्ठभूमि

द्वितीय विश्व युद्ध, फ्रांस, और अन्य देशों की आर्थिक उथल-पुथल के बाद 1945 में ब्रेटन वुड्स समझौते की पुष्टि हुई। इस समझौते ने फ्रांसीसी फ्रैंक सहित कई मुद्राओं के अवमूल्यन को मजबूर किया। दस्तावेज़ ने अमेरिकी डॉलर के लिए फ्रेंच फ्रैंक की पेगिंग को भी निर्धारित किया। बड़े पैमाने पर अवमूल्यन के प्रभाव से फ्रांसीसी उपनिवेशों को अलग करने के लिए , फ्रांस ने दो नई मुद्राओं, पश्चिम अफ्रीकी सीएफए और एक्सपीएफ का निर्माण किया।

सबसे पहले, फ्रेंच पोलिनेशिया, न्यू कैलेडोनिया और न्यू हेब्राइड के लिए क्रमशः वालिस और फ़्यूचूना के साथ न्यू कैलेडोनियन फ्रैंक का उपयोग करते हुए मुद्रा के तीन अलग-अलग रूप थे। अब सभी बैंकनोट एक जैसे हैं, एक तरफ लैंडस्केप या फ्रेंच पोलिनेशिया के ऐतिहासिक आंकड़े और दूसरी तरफ न्यू कैलेडोनिया के लैंडस्केप या ऐतिहासिक आंकड़े प्रदर्शित करते हैं।

हालांकि, सिक्कों के दो सेट अभी भी हैं। न्यू कैलेडोनिया से फ्रेंच पोलिनेशिया तक, सिक्कों का एक पक्ष समान रहता है, जबकि रिवर्स साइड अलग-अलग होता है, या तो नोवेल-कैलेडोनी (न्यू कैलेडोनिया, वालिस और फ़्यूचूना) नाम के साथ दिखाई देता है, या पॉलीनेसी फ्रेंकाइज़ (फ्रेंच पोलिनेशिया) नाम ।

यूरो सिक्कों के कार्य के समान, एक पक्ष के साथ जो एक राष्ट्रीय विषय को प्रदर्शित करता है, लेकिन सभी यूरोजोन देशों में कानूनी निविदा है, सीएफपी के सिक्कों का उपयोग उन सभी देशों में किया जा सकता है जो यूरोज़ोन का हिस्सा हैं, साथ ही साथ सभी फ्रेंच प्रदेशों में भी।

मुद्रा और चालू खाते को लेकर भारत की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत 3.5 फीसदी के काफी उच्च स्तर के चालू खाते के घाटे की संभावना से दो-चार है. एक अनुमान के मुताबिक़, भारत का चालू खाते का घाटा 100 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर हो सकता है. सरकार के सामने इस बढ़ रहे चालू खाते के घाटे की भरपाई पूंजी प्रवाह से करने की चुनौती है. The post मुद्रा और चालू खाते को लेकर भारत की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है appeared first on The Wire - Hindi.

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत 3.5 फीसदी के काफी उच्च स्तर के चालू खाते के घाटे की संभावना से दो-चार है. एक अनुमान के मुताबिक़, भारत का चालू खाते का घाटा 100 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर हो सकता है. सरकार के सामने इस बढ़ रहे चालू खाते के घाटे की भरपाई पूंजी प्रवाह से करने की चुनौती है.

पिछले कुछ हफ्तों से, जब विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (एफपीआई) द्वारा लगातार बाजार में बिकवाली का दौर जारी रहा, भारतीय रिजर्व बैंक भारतीय मुद्रा रुपये की विनिमयय दर को थामने की एक हारी हुई लड़ाई लड़ता दिखा.

विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने मुख्य तौर पर भारतीय ब्लूचिप कंपनियों के शेयरों की बिक्री है और भारतीय बाजार से 2.3 लाख करोड़ रुपये (लगभग 30 अरब अमेरिकी डॉलर) की बड़ी रकम निकाल ली है. इसने भारतीय रुपये पर और नीचे गिरने का भीषण दबाव बनाने का काम किया है.

रुपये में ऐतिहासिक गिरावट का दौर जारी है और यह आरबीआई द्वारा भारतीय विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर की बिक्री करके इसे संभालने की कोशिशों को धता बताते हुए प्रति डॉलर 79 रुपये से ज्यादा नीचे गिर चुका है. सिर्फ एक पखवाड़े में ही रिजर्व बैंक ने 10 अरब अमेरिकी डॉलर की बिक्री की है.

बता दें कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार, अक्टूबर, 2021 के 642 अरब अमेरिकी डॉलर के उच्चतम स्तर से 50 अरब अमेरिकी डॉलर घट गया है. इसके मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि अलावा तेल-गैस का एक बड़ा आयातक होने के नाते ज्यादातर विशेषज्ञों के अनुमानों के मुताबिक भारत 3.5 फीसदी के काफी उच्च स्तर के चालू खाते के घाटे की संभावना से भी दो-चार है. ठोस आंकड़ों में तब्दील करें, तो भारत का चालू खाते का घाटा 100 अरब अमेरिकी डॉलर के बराबर हो सकता है. सरकार के सामने इस बढ़ रहे चालू खाते के घाटे की भरपाई पूंजी प्रवाह से करने की चुनौती है.

इस साल, पूंजी प्रवाह (विदेशी पोर्टफोलियो निवेश और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश-एफडीआई) दोनों ही काफी कमजोर रहे हैं. एलआईसी के शेयरों के विनिवेश को लेकर जिस तरह से बहुत उत्साह नहीं दिखा, उससे यह स्पष्ट है कि विदेशी संस्थागत निवेशक बेहद लाभदायक भारतीय सार्वजनिक उपक्रमों की परिसंपत्तियों में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं.

विदेशी निवेशक अपने निवेश फैसलों को तब तक रोक कर रखेंगे, जब तक कि रुपये में गिरावट/अवमूल्यन पूरी तरह हो नहीं जाता है और यह नया स्थिर स्तर प्राप्त नहीं कर लेता है. यूक्रेन युद्ध के बाद और तेल-गैस और खाद्य पदार्थों की बढ़ रही कीमतों की पृष्ठभूमि में रुपये का नया स्तर क्या है? ज्यादातर वैश्विक निवेशक इस बात की थाह लेना चाहते हैं.

जापानी इनवेस्टमेंट रिसर्च हाउस नोमुरा ने डॉलर की तुलना में रुपये की कीमत के 82 रुपये तक जाने का अनुमान लगाया है. वित्त मंत्रालय ने पिछले सप्ताह मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि सावधानी के साथ यह बता दिया कि वैश्विक आर्थिक हालातों को देखते हुए 80 रुपये प्रति डॉलर का मूल्य तर्कसंगत होगा.

सीएनबीसी को दिए गए एक इंटरव्यू में मुख्य आर्थिक सलाहकार अनंत नागेश्वरन ने यह स्वीकार किया कि 2022-23 में भारत 30 से 40 अरब डॉलर के नकारात्मक चालू खाते के घाटे का सामना कर सकता है. उन्होंने इसके साथ ही यह भी तुरंत ही जोड़ा कि यह कोई चिंता की बात नहीं है क्योंकि इतनी रकम विदेशी मुद्रा भंडार से ली जा सकती है.

आरबीआई के डेटा के आधार पर इकोनॉमिक्स टाइम्स की रिपोर्ट एक और गंभीर चिंता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत को अगले 9 महीनों में 267 अरब अमेरिकी डॉलर के विदेशी कर्ज का भुगतान करना होगा. यह भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का करीब 44 प्रतिशत है. क्या वैश्विक मुद्रा संकुचन के हालात में यह एक और जोखिम का सबब बन सकता है?

एक तरफ नागेश्वरन यह तर्क दे रहे हैं कि खतरे की घंटी बजाने जैसी कोई बात नहीं है, लेकिन सरकार के कुछ कदमों से ऐसा लगता है यह काफी मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि चिंतित है.

वित्त मंत्रालय ने पिछले सप्ताह ओएनजीसी और ऑयल इंडिया लिमिटेड जैसे घरेलू कच्चा तेल उत्पादकों पर एक बड़ा विंडफॉल टैक्स (अचानक और अप्रत्याशित हुए मुनाफे पर लगाया गया कर)- करीब 40 डॉलर प्रति बैरल का- लगा दिया. इसने डीजल, पेट्रोल और निर्यातित एटीएफ पर एक अच्छा खासा 13 रुपये प्रति लीटर का निर्यात कर भी लगा दिया. इससे मुख्य तौर पर आरआईएल (रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड) पर प्रभाव पड़ेगा, जो अपने मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि रिफाइंड उत्पादों का 90 फीसदी से ज्यादा निर्यात करती है.

पिछले कुछ महीनों से आरआईएल ने जमकर मुनाफा कमाया है. यह रूस से काफी सस्ता और कीमत में काफी छूट के साथ मिला कच्चा तेल खरीदकर अपने उत्पादों, मुख्य रूप से डीजल की बिक्री यूरोपीय संघ और अमेरिका को कर रही था. कुछ जानकारों का कहना है कि आरआईएल को प्रति बैरल पर 35 डॉलर से ज्यादा मुनाफा हो रहा था.

जेपी मॉर्गन का कहना है कि सरकार द्वारा निर्यात कर लगाए जाने के बाद मुनाफा घटकर 12 से 13 डॉलरर प्रति बैरल पर आ सकता है. हालांकि इसके बाद भी रिलायंस को अपने निर्यात पर अच्छा-खासा लाभ होगा.

सरकार ने सोने के आयात पर भी आयात शुल्क को बढ़ा दिया है. उसे उम्मीद है कि इससे सोने का आयात कम होगा और भारत के कीमती विदेशी मुद्रा भंडार को सहेजा जा सकेगा.

समस्या यह है कि ये सब चालू खाते के घाटे को नियंत्रण में रखने के मकसद से टुकड़े-टुकड़े में लिए गए फैसले हैं. खाद्य पदार्थो, स्टील, तेल आदि पर निर्यात प्रतिबंध लगाने का मकसद घरेलू मुद्रास्फीति पर नियंत्रण रखना है, लेकिन इससे निर्यात से होने वाली कमाई में भी कमी आती है, खासकर ऐसे समय में जब विदेशी मोर्चे का जोखिम बढ़ रहा है. इसलिए, घरेलू महंगाई पर नियंत्रण और विदेशी मोर्चे को स्थिर करने के बीच, केंद्र की स्थिति काफी दुविधा वाली हो गई है.

सरकारें माइक्रो पॉलिसी के स्तर पर जितना रद्दोबदल करती हैं, मैक्रो मैनेजमेंट का काम उतना अनिश्चित और कठिन होता जाता है. भारत में अभी यही हो रहा है.

तेल कंपनियों पर विंडफॉल लाभ पर कर लगाकर जमा किए गया धन बढ़ रहे राजकोषीय घाटे को पाटने में आंशिक तौर पर मदद करेगा. लेकिन यह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि कुल अतिरिक्त खर्च सरकार द्वारा लगाए गए सभी विंडफॉल करों को शामिल करने के बावजूद बजट के अनुमानों से 3.5 से 4 लाख करोड़ तक पहुंच सकता है.

खराब हो रहे वैश्विक आर्थिक हालात के बीच बढ़ रही राजकोषीय चुनौती को कम करके नहीं आंका जा सकता है.

बढ़ी हुई बेरोजगारी के बीच भारत में एक के बाद होने वाले चुनावों में लोक-कल्याण के नए-नए वादे किए जाते हैं. इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का उदार लोक-कल्याणकारी कार्यक्रमों के जरिये ज्यादा समग्र लोक-कल्याणवाद वादा भी राजकोषीय खर्च को बढ़ावा देता है.

जहां तक मैक्रो या व्यापक स्तर का सवाल है, तो दुनिया की निगाहें भारत पर टिकी होंगी कि भारत अपने दोहरे घाटे- राजकोषीय घाटे और चालू खाते के घाटे से कैसे निपटता है.

आखिरकार इन दो संकेतकों का मैक्रो मैनेजमेंट ही विनिमय दर की स्थिरता, मुद्रास्फीति और संवृद्धि का निर्धारण करेगा. अल्पकालिक नजरिये से उठाए जाने वाले कदमों से मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि एक सीमा के बाद कोई फायदा नहीं पहुंचेगा.

भारत विदेशी मुद्रा पर क्या IMF की सलाह मानने को मजबूर है ? जानें सब कुछ

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने हाल ही में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के केंद्रीय बैंकों से अपने डॉलर-मूल्य वाले विदेशी मुद्रा भंडार का विवेकपूर्ण उपयोग करने और मुद्रा की लेन-देन की दर को समायोजित करने की अनुमति देने के लिए कहा है। आईएमएफ की सलाह की पृष्ठभूमि में मिंट ने जांच की कि अभी तक रुपये का प्रदर्शन कैसा रहा है।

मौजूदा विदेशी मुद्रा चलन

मजबूत अमेरिकी मुद्रा के बीच अमेरिकी डॉलर इंडेक्स 113 अंक से ऊपर बढ़ने के साथ, रुपया 20 अक्टूबर को 83.073 के नए निचले स्तर पर आ गया। इस वर्ष रुपया अब लगभग 11.36% कमजोर हो गया है जबकि डॉलर इंडेक्स 3 जनवरी को 96.21 से बढ़कर 20 अक्टूबर को 113.08 हो गया है। डॉलर इंडेक्स छह मुद्राओं- यूरो, स्विस फ्रैंक, जापानी येन, कैनेडियन डॉलर, ब्रिटिश पाउंड और स्वीडिश क्रोना की एक बॉस्केट के मुकाबले अमेरिकी डॉलर के मूल्य को मापता है।

केंद्रीय बैंकों ने हालात को संभाला

अस्थिरता और मुद्रा अवमूल्यन को कम करने के लिए, केंद्रीय बैंकों ने विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप किया है और अपने विदेशी मुद्रा भंडार से डॉलर बेच रहे हैं। जबकि भारत ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार का 13.9% खर्च किया है, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, दक्षिण कोरिया मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि जैसे देशों ने प्रतिशत और पूर्ण संख्या दोनों के संदर्भ में कम उपयोग किया है।

मुद्रा भंडार संरक्षित करने की सलाह दी थी

आईएमएफ ने अपने सबसे हालिया वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक अपडेट में, 2022 के लिए भारत के आर्थिक विकास के अनुमान को घटाकर 6.8% कर दिया, जिसमें उम्मीद से कम वित्त वर्ष 23 की पहली तिमाही में विकास और बाहरी दबावों जैसे कारणों का हवाला दिया गया। अमेरिकी डॉलर में जोरदार तेजी के साथ, आईएमएफ ने उभरती अर्थव्यवस्थाओं से भविष्य में संभावित रूप से तेज पूंजी निकासी और उथल-पुथल से निपटने के लिए महत्वपूर्ण विदेशी मुद्रा भंडार को संरक्षित करने का भी आग्रह किया। आईएमएफ ने चेताया है कि डॉलर मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि की मजबूती का सभी देशों के लिए बड़े पैमाने पर व्यापक आर्थिक प्रभाव पड़ता है।

छह माह तक आयात पर निगाह रखना जरूरी

बढ़ती वैश्विक मुद्रास्फीति और विश्व व्यापार में मंदी की पृष्ठभूमि में निर्यात प्रदर्शन असंतोषजनक रहा है। संशोधित आईएमएफ विकास अनुमानों से पता चलता है कि भारत के प्रमुख निर्यात बाजारों में या तो अल्प वृद्धि या अनुबंध दर्ज होने की उम्मीद है। अगर आरबीआई ने हस्तक्षेप नहीं किया होता, तो मूल्यह्रास बहुत अधिक होता। हालांकि, आरबीआई को आईएमएफ की सलाह पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है, जब तक कि वह कम से कम छह महीने के लिए अपनी आयात क्षमता के मामले में सहज है।

Arthaat

अर्थार्थ
ड़क पर से बैंकनोट बटोरे जा रहे हैं। (हंगरी 1946) .. लाख व करोड़ मूल्य वाले के नोट लेकर लोग जगह जगह भटक रहे हैं। (जर्मनी 1923) .. बाजार में कीमतें घंटो की रफ्तार से बढ़ रही हैं। (जिम्बावे 2007)। . अमेरिका के लोगों के सपनों में यह दृश्य आजकल बार-बार आ रहे हैं। अंकल सैम का वतन, दरअसल, भविष्य के क्षितिज पर हाइपरइन्फे्लेशन का तूफान घुमड़ता देख रहा है। एक ऐसी विपत्ति जो पिछले सौ सालों में करीब तीन दर्जन से देशों में मुद्रा, वित्तीय प्रणाली और उपभोक्ता बाजार को बर्बाद कर चुकी है। आशंकायें मजबूत है क्यों कि ढहती अमेरिकी अर्थव्यवस्था को राष्ट्रपति बराकर ओबामा और बेन बर्नांकी (फेडरल रिजर्व के मुखिया) मुद्रा प्रसार की अधिकतम खुराक (क्यूई-क्वांटीटिव ईजिंग) देने पर आमादा हैं। फेड रिजर्व की डॉलर छपाई मशीन ओवर टाइम में चल रही है और डरा हुआ डॉलर लुढ़कता जा रहा है। बर्नाकी इस घातक दवा (क्यूई) के दूसरे और तीसरे डोज बना रहे है। जिनका नतीजा अमेरिका को महा-मुद्रास्फीति में ढकेल सकता है और अगर दुनिया में अमेरिका के नकलची समूह ने भी यही दवा अपना ली तो यह आपदा अंतरदेशीय हो सकती।

क्यूई उर्फ डॉलरों का छापाखाना
मांग, उत्पादन, निर्यात और रोजगार में बदहाल अमेरिका डिफ्लेशन (अपस्फीति) के साथ मंदी के मुहाने पर खड़ा है। ब्याज दरें शून्य पर हैं यानी कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए ब्याज दरें घटाने जैसी दवायें फेल हो चुके हैं। अब क्वांटीटिव ईजिंग की बारी है। अर्थात ज्यादा डॉलर छाप कर बाजार में मुद्रा की क्वांटिटी यानी मात्रा बढ़ाना। नोट वस्तुत: भले ही न छपें लेकिन व्यावहारिक मतलब यही है कि फेड रिजर्व के पास मौजूद बैंको के रिजर्व खातों में (मसलन भारत में सीआरआर) ज्यादा धन आ जाएगा। इसके बदले बैंक बांड व प्रतिभूतियां फेड रिजर्व को दे देंगे। क्यूई की दूसरी खुराक इस साल दिसंबर तक आएगी। तीसरी की बात भी
चल रही है। अमेरिका मे इस खतरनाक दवा के इस्तेमाल के बाद से फेड रिजर्व की बैलेंस शीट 2008 के सितंबर में 900 बिलियन डॉलर से बढ़ कर अब 2.3 ट्रिलियन डॉलर पर आ गई है। फेड हर माह करीब 14.5 बिलियन डॉलर बाजार में छोडऩे की तैयारी में है। बर्नांकी समझ रहे हैं कि बाजार में पैसा बढऩे से औद्योगिक कर्ज, उत्पादन और डॉलर की कमजोरी से निर्यात व रोजगार बढ़ेंगे। मगर दुनिया यह मान रही कि इससे डॉलर की साख चौपट हो जाएगी जो कि अमेरिका और पूरी दुनिया पर भारी पड़ेगा।
महा-महंगाई की पदचाप
हंगरी की सड़क पर 1946 में जो पेंगो (हंगरी की मुद्रा) झाड़ू से बटोर कर किनारे किये गए उनमें ज्यादातर नोट दस के आगे 20 शून्य वाले (क्विनटिलियन) वाले था और महंगाई की दैनिक दर 207 फीसदी पर थी। हाइपरइन्फ्लेशन एक जटिल परिस्थिति है। यह वित्तीय आपदा किसी देश की कानूनी मुद्रा (फिएट करेंसी अर्थात सरकार से गारंटी प्राप्त मुद्रा मसलन कागजी नोट या सिक्के) को ले डूबती है। शास्त्रीय अर्थों में मुद्रास्फीति की मासिक दर का 50 फीसदी ऊपर जाना हाइपरइन्फ्लेशन की शुुरुआत है जो मुद्रा के अभूतपूर्व अवमूल्यन पर जाकर रुकती है। पिछले सौ वर्षों में जर्मनी, जापान, रुस, टर्की, चीन, ब्राजील, अर्जेँटीना सहित 36 से ज्यादा देशों के नागरिकों ने इस महा-महंगाई को झेला है जिसमे उनकी मुद्रा रद्दी में बदल (लाख करोड़ के नोट) गई और महंगाई सब कुछ लूट ले गई। 11000 फीसदी की मुद्रास्फीति और 100 ट्रिलियन डॉलर के नोट वाला 2007 का जिम्बावे दुनिया के जहन में सबसे ताजी याद है। इस आपदा की पृष्ठभूमि में युद्ध, मुद्रा संकट, राजनीतिक अव्यवस्था कुछ भी हो सकते हैं लेकिन इसकी वजह है सिर्फ तर्कहीन मुद्रा प्रसार यानी नोट छापकर बाजार में फेंकने की आदत। जो अंतत: घरेलू मुद्रा को कचरे में बदल देती है। अधिकांश मामलों में हाइपरइन्फेलेशन मौद्रिक सुधारों और नई मुद्रा के जन्म के साथ बिदा हुई हैं। अमेरिका भी इस खतरे की दहलीज पर खड़ा है। फेड रिजर्व जितने डॉलर छोड़ेगा, अमेरिकी डॉलर उतना कमजोर होता जाएगा और डॉलर की कमजोरी के अपने व्यापक असर हैं। मुद्रा प्रसार (क्यूई) कार्यक्रम को देखकर विशेषज्ञ मान रहे हैं कि मुद्रास्फीति की यह महादशा 18 महीने में अमेरिका को घेर सकती है।
सबसे बड़ा दांव
अमेरिकी डॉलर, अर्जेंटीना का पेसो, हंगरी का पेंगो, बल्गीरिया का लेव या ग्रीस का ड्राच्मा नहीं है। हर देश के विदेशी मुद्रा भंडार इस रिजर्व करेंसी की खूंटी पर टंगे है। उसका अवमूल्यन बहुतों की सांस उखाड़ सकता है। यह समझने के बाद ही अमेरिका ने यह नपा तुला जोखिम लिया है। वित्तीय संकट से मुद्रा अवमूल्यन की पृष्ठभूमि निबटने के लिए यह अमेरिका का अब तक का सबसे बड़ा दांव है। जीडीपी के अनुपात में शत प्रतिशत कर्ज और दस फीसदी के राजकोषीय घाटे पर बैठे अमेरिका, इस कदम के नतीजे के तौर पर, कर्ज का बोझ बढऩा और डॉलर का कमजोर होना तय है। फिर भी यह मानने वाले कम नहीं हैं इसके बावजूद दुनिया डॉलर को डूबने नहीं देगी क्यों कि यह रिजर्व करेंसी अगर धराशायी हुई तो जिंसों की कीमतें आसमान छूकर दुनिया को संकट में ढकेल देंगी। इस दूसरे तर्क के सहारे अमेरिका अपनी गलतियों की कीमत शेष दुनिया से वसूल रहा है। वैसे कई मायनों में यह परिस्थिति बिल्कुल नई है। कोई नहीं जानता कि निर्यात बढ़ाने के लिए प्रतिस्पर्धात्मक मुद्रा अवमूल्यन में उलझी दुनिया के कुछ और बड़े देशों ने अगर अमेरिका का नुस्खा आजमाया तो क्या दशा होगी? ऐसा होना बहुत हद तक मुमकिन है क्यों अमेरिका जैसी मंदी ने बहुतों को घेर रखा है।
हाइपरइन्फलेशन से खौफजदा लोग जर्मनी के वाइमर गणराज्य (1923) की वह छवि याद करते हंै जब लोगों ने 100 ट्रिलियन मार्क के बैंक नोटों से दीवारें सजाई थीं। इतिहास की इबारत तो यही कहती है कि अमेरिका ने एक ऐसी दवा चुनी है जिसके न प्रभावी होने की गारंटी है और न सुरक्षित होने की। क्यों कि जापान जैसे कुछ एक उदाहरणों को छोड़ कर ज्यादातर को यह इलाज गर्त में ही ले गया है लेकिन अमेरिका करे भी क्या? जिसके पास हथौड़ा ही एकलौता औजार हो उसे हर समस्या कील नजर आती है। फेड रिजर्व इसी कहावत का मुरीद है और अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए डॉलर छापने के एकलौते विकल्प का इस्तेमाल रहा है। खुद अमेरिका भी यह नहीं जानता कि क्यूई यानी मुद्रा प्रसार का यह खतरनाक मंत्र उसके अनिष्ट को दूर करेगा या नए बड़े संकट में ढकेल देगा लेकिन इतना तय है कि कमजोर डॉलर बहुत सी जरुरी चीजों की कीमतों को बेतहाशा बढ़ाने जा रहा है। अर्थात दुनिया को तत्काल महंगाई की कुछ कठिन अंतर-दशाओं के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

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